`स्नेह की मूर्त, ममता का सागर, ह्रदय में लेकर प्यार अपार
ईश्वर ने भेजा है मां को देकर अपना रूप नायाब
बिछड़ी थी मां बरसो पहले,लेकिन जीवित है मेरे दिल में
मूँद लेती हूँ जब भी आँखें, आ जाती है वो पल भर में
वो प्यारा सा चेहरा मां का, बचपन की याद दिलाता है
मां जैसा न दिखता कोई, मन तरस के रह जाता है
अब तो समय अपना भी आया, पर कुछ सोच के मैं मुस्कुराती हूं
दिल चाहता है मां, फिर तेरी बेटी बन कर आऊँ मैं
खेलूंगी फिर गोद में तेरी, फिर वो ममता पाऊँ मैं
पहले थी मैं छोटी सबसे, अब बढकी बन कर आऊँ मैं
अपने baal हठ से मैया तुझको खूब सताऊँ मैं
नमन है मेरा हर मां को, मां है जग में सबसे महान
, शीश झुका कर हर जननी को हम सब करते हैं प्रणाम
शुक्रवार, 18 मई 2012
गुरुवार, 22 मार्च 2012
दर्द
अतीत
भुलाना चाहूं अतीत मैं अपना ,पर ना इसे भुला मैं पाऊँ
अपने मॅन की पीढ़ा को, हँसी की चादर तले छिपाऊँ
अपने मॅन की पीढ़ा को, हँसी की चादर तले छिपाऊँ
बीते लम्हो की पीड़ा को दफ़नाया था, मॅन के किसी कोने में
लगी रही मैं फ़र्ज़ निभाने पत्थर रख, कर अपने सीने पे
लगी रही मैं फ़र्ज़ निभाने पत्थर रख, कर अपने सीने पे
याद कभी भी जब तुम आए,गुपचुप मैने आँसू बहाए,
इस डर से की दर्द यह मेरा कहीं अपनो को नज़र ना आए
संवार दिया जीवन इनका अपने अथक परिश्रम से,
पर अब तक गये हैं तन मॅन दोनो आँसू भी सैलाब हैं बन गये,
रिसने लगे हैं ज़ख़्म यह मेरे, पीड़ा अब यह सही ना जाए
कौन है आ करके जो हमदर्दी का मरहम लगाए
पर अब तक गये हैं तन मॅन दोनो आँसू भी सैलाब हैं बन गये,
रिसने लगे हैं ज़ख़्म यह मेरे, पीड़ा अब यह सही ना जाए
कौन है आ करके जो हमदर्दी का मरहम लगाए
घायल तो मुझको तुमने भी किया था , दर्द तो तब भी बहुत पिया था
पर जीवन में लक्ष्य था भारी, मेरे कंधो पर थीमेरे घर की ज़िम्मेवारी
पर जीवन में लक्ष्य था भारी, मेरे कंधो पर थीमेरे घर की ज़िम्मेवारी
बहुत थक चुकी हूँ अब मैं,चिर निद्रा में सोना चाहती हूँ
पल पल तिल तिल मैं मरती हूँ, पास तुम्हारे आना चाहती हूँ
पल पल तिल तिल मैं मरती हूँ, पास तुम्हारे आना चाहती हूँ
चाह है दूर कहीं निकल मैं जाऊं, वापिस लौट के फिर ना आऊँ
बोलो आओगे क्या मुझको लेने ,अब यह पीड़ा सह ना पाऊँ
बोलो आओगे क्या मुझको लेने ,अब यह पीड़ा सह ना पाऊँ
सुलेखा डोगरा २९-०१-२००६
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